दुर्गा पूजा | Durga Puja in Hindi

 दुर्गा पूजा | नवरात्रि | Durga Puja | Durga Puja in Hindi

दुर्गा पूजा एक प्रमुख भारतीय त्योहार है। यह प्रमुख रूप से पश्चिम बंगाल में मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उड़ीसा, असम, त्रिपुरा, बिहार,  छत्तीसगढ़ तथा उत्तर प्रदेश सहित देश के अन्य भागों में मनाया जाता है। यह त्यौहार एक मातृ-शक्ति के रूप में मनाया जाता है। इसमें 10 दिनों तक पूजा की जाती है। इसमें अंतिम पांच दिन प्रमुख है। इन दिनों में सार्वजनिक पूजा घर बनाकर पूजा की जाती है। इन्ही पूजा घरों को पंडाल कहते हैं। शक कैलेंडर के अनुसार यह त्यौहार अश्वनी माह में आता है। हिंदू धर्म (ब्राह्मण धर्म) के अनुसार यह त्यौहार बुराई पर अच्छाई के रूप में मनाया जाता है। इस दिन देवी दुर्गा ने बहरूपी राक्षस महिषासुर का वध किया था।

यह त्यौहार बौध्द उत्सव का रूपांतरण है। आश्विन माह के शुक्ल पक्ष में वर्षा काल खत्म होने पर बौद्ध भिक्षुणी संघ से निकलकर आम जनता से मिलने और बुराइयों से छुटकारा दिलाने हेतु उपदेश देने के लिए आती थी। वे विशेषकर महिलाओं से बुराइयों को छोड़कर अच्छाइयां अपनाकर बुद्ध (बुद्धि) की शरण में आने का आह्वान करती थी। यह कार्यक्रम 10 दिनों तक चलता था। लोग अपने घरों में बौद्ध भिक्षुणियों को भोजन कराते थे। आज भी नवरात्र में अविवाहित लड़कियों को भोजन खिलाने की प्रथा है।

दुर्गा पूजा के अन्य नाम

दुर्गा पूजा को विभिन्न नाम से जाना जाता है जैसे आलोक बोधन, शारदीय पूजा (शरद ऋतु पूजा), सर्वोदय उत्सव आदि।

दुर्गा पूजा कैसे मनाते हैं

दुर्गा पूजा पश्चिम बंगाल सहित भारत के सभी हिस्सों में हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है। इस पूजा को निम्नलिखित चरणों में मनाया जाता है-

पंडाल

सबसे पहले एक अस्थाई पूजा घर बनाया जाता है। इसी अस्थाई पूजा घर को पंडाल कहते हैं। इसी पंडाल में दुर्गा देवी तथा उसके साथियों की मूर्तियों को रखा जाता है। इसके बाद इस पंडाल को कलाकृतियों, फूलों तथा रोशनी से सजाया जाता है।

देवी दुर्गा की मूर्ति की स्थापना

इसके बाद मिट्टी की बनी हुई देवी दुर्गा तथा अन्य संबंधित देवी देवताओं की मूर्ति को स्थापित किया जाता है। स्थापना के बाद इस मूर्ति का पारंपरिक कपड़ों, आभूषणों तथा अन्य सामानों से सौंदर्यकरण किया जाता है।

पूजा का आयोजन

पांडाल तैयार होने के बाद ब्राह्मण पुजारी पंडाल में पूजा करते हैं तथा भक्त लोग आशीर्वाद/कृपा पाने के लिए भजन कीर्तन करते हैं। भक्त लोग देवी देवता को फल, फूल, नारियल और मिठाई चढ़ाते हैं। चार-पांच दिनों तक पूजा का यह कार्यक्रम/अनुष्ठान चलता रहता है। भक्त लोग भिन्न-भिन्न पंडालों में जाकर देवी दुर्गा तथा अन्य देवी देवताओं के दर्शन करते हैं तथा आशीर्वाद लेते हैं।

सांस्कृतिक कार्यक्रम

पूजा पंडाल के आसपास सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन किया जाता है। भक्त लोग पूजा पाठ करने के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों का लुत्फ उठाते हैं। इसमें संगीत, नृत्य तथा नाटकों का कार्यक्रम होता है। इसमें विभिन्न तरह के नृत्य होते हैं। जैसे धनुची नृत्य तथा सिंदूर बेला नृत्य। धनुची नृत्य अगरबत्ती से भरे मिट्टी के बर्तन के साथ होता है। इसके साथ लयबध्द संगीत होता है। सिंदूर खेला नृत्य में विवाहित महिलाएं एक दूसरे के माथे पर सिंदूर लगाती हुई इस नृत्य को करती है। इस नृत्य में ये महिलाएं दुर्गा देवी से यह मांग करती है कि उनका विवाहित जीवन तथा प्रजनन क्षमता सही सलामत रहे।

विसर्जन

दुर्गा पूजा के अंतिम दिन दशहरे के दिन देवी दुर्गा की मूर्ति को एक जुलूस में ले जाया जाता है। जहां डीजे के साथ नृत्य करते हुए भक्त लोग साथ-साथ जाते हैं। जुलूस में देवी दुर्गा की मूर्ति के साथ-साथ नाटकों का भी आयोजन किया जाता है। जुलूस समाप्त होने पर देवी दुर्गा की मूर्ति को एक जल निकाय में विसर्जित कर दिया जाता है। यह इनके दिव्या निवास की वापसी का प्रतीक माना जाता है।

दुर्गा पूजा क्यों मनाई जाती है | दुर्गा पूजा से संबंधित मान्यताएं

दुर्गा पूजा से संबंधित कुछ मान्यताएं हैं-

महिषासुर का वध

यह कहानी मार्कंडेय पुराण से ली गई है। इस कहानी के अनुसार एक महिषासुर नामक दानव था। यह अत्यन्त शक्तिशाली था। उसके पास अद्भुत शक्तियां थी। उसने स्वर्ग में जाकर तहलका मचा दिया। सभी देवतागण इसके अत्याचार से परेशान हो गए। सभी देवताओं ने इकट्ठा होकर आदिशक्ति का आह्वान किया और अपनी समस्या बताई। आदि शक्ति ने दुर्गा देवी को उत्पन्न किया। दुर्गा देवी ने महिषासुर का वध करके देवताओं को शान्ति प्रदान की। तभी से दुर्गा देवी की पूजा की जाती है।

माता काली की कहानी

जब आदिशक्ति ने देवी दुर्गा को बनाया तो इन्हें नौ रूप दिए। इन्हीं नौ रूपों में एक रूप काली माता का था। एक बार रक्तबीज नाम का एक दानव था। इसका रक्त जहां पर भी गिर जाता था वहीं पर एक राक्षस का जन्म हो जाता था। इसने भी देवताओं को बहुत परेशान कर दिया था। जब उसने पार्वती माता के ऊपर हमला करने की कोशिश की तो पार्वती ने काली का रूप धारण कर लिया। माता काली ने रक्त बीच का वध करके देवताओं को सुरक्षित किया। महादेव ने काली के सामने आकर उनको शांत किया। इसलिए दुर्गा पूजा के साथ-साथ माता काली की पूजा करने का भी प्रावधान है।

दुर्गा पूजा का इतिहास

1000 ई. से पहले यह  बौद्धों का प्रमुख त्यौहार था। यह बाद में कुछ धूर्त लोगों की चालाकी के चलते अंधविश्वास और पाखंड से युक्त दुर्गा पूजा में रूपांतरित हो गया।

अश्विन मास का अंतिम महिला वर्षावास का अंतिम महिला होता है। वर्षावास के दौरान बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियां संघ के अंदर ही रहते थें और आम जनता से नहीं मिलते जुलते थें।

भिक्षु वर्ग

आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में भिक्षु वर्ग के वर्षावास का समापन होता था। शुक्ल पक्ष में भिक्षुणी वर्ग के वर्षावास का समापन होता था। अश्विन मास के कृष्ण पक्ष में गृहस्तों के द्वारा बौद्ध भिक्षुओं का स्वागत किया जाता था तथा उन्हें भोजन दान दिया जाता था। इसके साथ ही उत्सव मना कर खुशी मनाई जाती थी। यह रीति-रिवाज अब भी पूरे देश में चलन है लेकिन दूसरे नाम तथा अंधविश्वास और पाखंड के साथ।अभी यह पितृ श्राद्ध के नाम से चलन में है।

भिक्षुणी वर्ग

अश्विन के शुक्ल पक्ष में महिला भिक्षुणियों को गृहस्तों द्वारा भोजन दान दिया जाता था तथा उनका स्वागत करके खुशियां मनाई जाती थी। आज भी यह परंपरा अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग नाम से प्रचलित है।

कुछ जगह में इसे नवरात्रि का चोला पहना दिया है। कुछ क्षेत्रों में यह पिंड दान करने की परंपरा बन गई है। कुछ क्षेत्रों में भिक्षुणी संघ के गृहस्तों में आने की खुशी में डांडिया गरबा डांस का आयोजन करने की परंपरा थी। डांडिया गरबा डांस  करने की यह परंपरा आज भी प्रचलन में है। चौथे क्षेत्र में महिला भिक्षुणी संघ के गृहस्थों के बीच आने पर बथुकंपा पाडुंगा मनाने की परंपरा आज भी विद्यमान है। इसका अर्थ होता है मां देवी, जीवित जाओ। सम्यक संस्कृति में भिक्षु को देव तथा भिक्षुणी को देवी कहा जाता है।

 

अतः  अतः  यह त्यौहार देशना (enlightenment education) का था। जिसे 1000 सालों के अंदर आज के दुर्गा उत्सव का रूप दे दिया है। 700 से 800 AD के पहले किसी भी विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतांतों में न तो आज के त्योहारों का नाम मिलता, न ही किसी  पुरातात्विक स्रोत में। बंगाल में पाल वंश अंतिम बौद्ध वंश था। पाल वंश के सभी शासक बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी थे. बौद्ध परंपरा की वज्रयान शाखा में संकेतों के माध्यम से लोगों को समझाया जाता था। इसलिए बोधिसत्व की विभिन्न संकेत वाली मूर्ति बनाई जाती थी। आज भी खुदाई करने पर इस तरह की मूर्ति मिलती है।  बोधिसत्व वह व्यक्ति होता है जो ज्ञान के निश्चित स्तर को प्राप्त कर लेते हैं। आजकल इसी परंपरा की बोधिसत्व तारावती की मूर्ति को दुर्गा देवी बना दिया है। मंजूश्री की मूर्ति को लक्ष्मी बना दिया गया है। इस तरह से हम देखते हैं कि कैसे सम्यक परंपरा का प्राकृतिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण आजकल अंधविश्वास और पाखंड के धार्मिक दृष्टिकोण में बदल गया है।

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