बाबर का जीवन परिचय | मुगल साम्राज्य के संस्थापक | Babur Biography in hindi | Founder of Mugal Empire
बाबर (Babur) मुगल साम्राज्य के संस्थापक और प्रथम शासक थे। उसका जन्म 14 फरवरी 1483 ई. में हुआ था। उसके पिता छज्जे पर खड़े होकर पतंग उड़ा रहे थे, तभी अचानक छज्जा ढह गया और उसके पिता की मृत्यु हो गई। 1494 ई. में 12 वर्ष की आयु में उसे एक छोटी सी रियासत फरगना की राजगद्दी पर बैठाया गया।
राजगद्दी पर बैठते ही उसके सामने मुसीबतों के पहाड़ खड़े हो गए। उसके चाचा अहमद मिर्जा तथा उसके मामा सुल्तान महमूद ने उसके सामने अनेक मुसीबतें खड़ी की। उसने कम आयु में ही उनको परास्त कर दिया।
उसने 1504 ई. में काबुल जीता। 1507 ई. में कंधार जीता और बादशाह की उपाधि धारण की। उसने 1519 ई. से 1526 ई. तक भारत पर 5 आक्रमण किए। उसने 1526 ई. में पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहिम लोदी को हराया। 1527 ई. में खानवा के युद्ध में राणा सांगा को हराया। 1528 ई. में मालवा के शासक मेदिनीराय को हराया तथा 1529 ई. में घग्गर के युद्ध में महमूद लोदी को हराया। 1530 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
बाबर का प्रारम्भिक जीवन परिचय (Babur Biography in hindi)
1. | पूरा नाम | जहिरुद्दीन मुहम्मद बाबर |
2. | जन्म | 14 फरवरी 1483 ई. |
3. | जन्म स्थान | अन्दीजान, फरगना घाटी, तुर्किस्तान |
4. | पिता का नाम | उमर शेख मिर्जा |
5. | माता का नाम | कुतुलुग निगार खानम |
6. | वंश | चगतई |
7. | भाषा | तुर्की |
8. | बेटे-बेटी | हुमायूं, कामरान मिर्जा, अस्करी मिर्जा, हिंदल, गुलबदन बेगम |
9. | मृत्यु | 30 दिसंबर 1530 ई. |
10 | शासन अवधि | 1526-1530 ई. |
परिवारिक जीवन परिचय (Family Life Introduction)
बाबर (Babur) का जन्म फरगना घाटी के आंदीजान नामक शहर में 14 फरवरी 1483 ई. के दिन हुआ था। उसके पिता फरगना घाटी के शासक थे। जिनका कद ठिगना, जिस्म तगड़ा, चेहरा मांसल तथा दाढ़ी गोल थी। उसके पिता जिस छज्जे पर खड़े होकर पतंग उड़ा रहे थे। उसके ढह जाने से उसकी मृत्यु हो गई। 12 वर्ष की छोटी सी उम्र में वह फरगना रियासत की गद्दी पर बैठा।
माता की तरफ से वह चंगेज खान का 14वां वंश (generation ) तथा पिता की तरफ से तैमूर लंग का 5वां वंश था। वह मंगोलिया के बर्लास कबीले से सम्बन्धित था। मंगोलियन पहले बौध्द धर्म को मानते थे, परन्तु बाद में वे तुर्की जनजीवन से प्रभावित होकर इस्लाम धर्म में चले गये।
राजनातिक जीवन परिचय (Political Biography of Babur)
समरकंद पर विजय (Victory over Samarkand)
Babur ने 1497 ई. में 7 महीने की घेराबंदी के बाद समरकंद को जीत लिया। समरकंद 140 सालों तक तैमूरियों की राजधानी रहा। उसने अपनी आत्मकथा में इस शहर का वर्णन इस तरह से किया है – मनुष्य के रहने लायक दुनिया के किसी भी हिस्से में समरकंद जैसा आनंददायक कोई और शहर नहीं है । उसने इसकी शानदार इमारतों और बगीचों, व्यापार, निर्मित वस्तुओं, इसके चारों ओर फैले रमणीक मैदानों और इसके फलों तथा शराब की भूरी भूरी प्रशंसा की है।
यही कारण था वह समरकंद को हर हाल में जीतना चाहता था। जब उसने 1497 ई. में समरकंद को जीता, उसकी उम्र सिर्फ 15 वर्ष थी। बेशंकर मिर्जा के शिविर में फूट पड़ गई और उसका भाई उससे अलग हो गया और बाबर के खेमे में चला गया। इसी फूट के कारण उसको समरकंद जीतने में मदद मिली।
बेशंकर मिर्जा का भाई जल्दी ही बाबर से भी अलग हो गया। उसने समरकंद को पुनः प्राप्त करने के लिए शैबानी खान से मदद मांगी। शैबानी खान ने मदद देने के लिए तैयार हो गया और सेना लेकर आगे बढ़ा। लेकिन Babur की रण पद्धति को देखकर उसे पीछे हटना पड़ा।
समरकंद की जनता ने Babur का स्वागत किया। युद्ध के कारण समरकंद की हालत खराब हो गई थी। वहां न तो लोगों के पास खाद्य सामग्री थी और न ही धन। बाबर भी धन की कमी से जूझ रहा था। वह अपने मंगोल सैनिकों को तनख्वाह नहीं दे पा रहा था, जिसके कारण उसके मंगोल सैनिक उसका साथ छोड़ कर चले गए। उसके बेग भी उसका साथ छोड़ कर फरगना चले गए। उसकी शारीरिक अवस्था भी उसका साथ नहीं दे पा रही थी, इसलिए उसे समरकंद छोड़ना पड़ा।
उधर फरखना भी उसके हाथ से निकल गया क्योंकि कुछ बेगों ने उसके सौतेले भाई जहांगीर मिर्जा को गद्दी पर बैठा दिया तथा कुछ हिस्सों पर महमूद खान ने कब्जा कर लिया। बाबर के जाने के बाद समरकंद पर उज्बेकों का कब्जा हो गया।
सर-ए-पूल का युद्ध (Battle of Sar-e-Pool)
Babur ने स्वयं को पुनः व्यवस्थित किया और 1501 ई. में बाबर ने समरकंद पर फिर से हमला किया और कब्जा कर लिया। इस युद्ध में उसे समरकंद की जनता का साथ मिला। वहाँ की जनता को उजबेक पसंद नहीं थे। उन्होंने उजबेकों को डंडों और पत्थरों से पीट-पीट कर मार दिया। इसके जवाब में शैबानी खान जो बुखारा पर का काबिज था, जवाबी हमला कर दिया। Babur को अपनी कमजोरी का अहसास नही था। वह सेना लेकर शैबानी खान से लड़ने निकल गया। शैबानी खान ने बाबर को बुखारा के पास बुरी तरह परास्त किया।
इस युद्ध में शैबानी खान ने उजबेकों की तुलगमा युद्ध पद्धति का इस्तेमाल किया। इस युद्ध पद्धति में शत्रु की सेना को चारों ओर से घेर लिया जाता है। इसी युद्ध पद्धति का प्रयोग उसने 1526 ई. में इब्राहिम लोदी के विरुद्ध किया । वह वापस समरकंद लौट आया। जब उसने देखा कि कहीं से भी कोई मदद नहीं मिल रही है, तो मजबूर होकर उसने शैबानी खान के साथ समझौता कर लिया। इस समझौते के अनुसार समरकंद पर शैबानी खान का कब्जा हो गया और Babur को अपनी बहन खानजाद बेगम का विवाह शैबानी खान के साथ करना पड़ा। लेकिन यह विवाह भी दोनों के बीच की दूरियों को कम नहीं कर पाया।
आर्चियान का युद्ध (Archaean War)
बाबर के हाथ से सभी राज्य निकल गये और वह भुखमरी के कगार पर पहुंच गया। अब जाकर मंगोल खानों को भी उज्बेकों की बढ़ती ताकत से खतरा महसूस हुआ और वें बड़ी सेना लेकर ताशकंद से फरगना की ओर शैबानी खान से युद्ध करने चल दिए। उन्हें पूरी आशा थी कि फरगना पहुंचने पर उन्हें उजबेकों के खिलाफ तैमूर शासकों का समर्थन मिलेगा।
उधर शैबानी खान को भी एहसास था कि अगर मंगोल खान फरगना पहुंच गए तो उन्हें तैमूर शासकों का साथ मिल जाएगा। अतः वह 10000 घुड़सवार लेकर मंगोल खानों से जा भिड़ा और आर्चियान के पास उन्हें परास्त कर दिया। दोनों खानों को बंदी बना लिया गया। शैबानी खान ने एक चाल चली। उसने दोनों भाइयों को मुक्त कर दिया और उनके साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिये। उसने 3000 मंगोलों को अपनी सेना में भर्ती कर लिया।
काबुल और गजनी पर कब्जा (Capture of Kabul and Ghazni)
सर-ए-पूल और आर्चियान के युद्ध के बाद उजबेकों का तैमूरियनों तथा मंगोलों पर प्रभुत्व स्थापित हो गया। Babur ने इस प्रदेश को छोड़ दिया। उसने 1504 ईस्वी में शीत ऋतु में हिंदूकुश पर्वत को पार करके काबुल और गजनी पर कब्जा कर लिया। वह, उसके परिवारजन और बैग इन राज्यों के महत्व को भलीभांति जानते थे।
ख्वारिज्म पर शैबानी खान का कब्जा (Shaibani Khan captures Khwarizm)
1506 ई. में Baburने अपने चाचा हुसैन बैकरा के साथ हैरात की यात्रा की, क्योंकि उजबेकों ने उसके राज्य ख्वारिज्म पर कब्जा कर लिया था। लेकिन इसी समय में हुसैन की मौत हो गई और वह काबुल लौट आया। वह काबुल इसलिए लौट आया क्योकि हुसैन बैकरा के लड़के निकम्मे थे और वह उनके लिए उज्बेकों से उलझना नही चाहता था। इस प्रकार अंतिम तमुरियन राज्य भी उजबेकों के हाथ मे चला गया।
पादशाह की उपाधि (title of Pad Shah)
1506 ई. में ही Babur ने पादशाह की उपाधि धारण की। इस उपाधि के पीछे उनकी मंशा यह थी कि वह यह दिखाना चाहते थे कि अभी तैमूरयो का अंत नहीं हुआ और वह इसके साथ ही वह चकतई वंश के सभी व्यक्तियों की सहानुभूति हासिल करना चाहता था।
बाबर का इस्माइल शाह के साथ समझौता (Babur’s agreement with Ismail Shah)
1508 ई. मैं इस्माइल शाह ने शैबानी खान पर हमला कर दिया क्योंकि उसे डर था कि कहीं वह खुरासान पर हमला न कर दें। इस्माइल शाह सफावी वंश का था। सफावियों का आधुनिक ईरान पर कब्जा था और पूर्वी ईरान के प्रदेश को खुरासान कहा जाता था। खुरासान पर उजबेकों की नजर थी। इस्माइल शाह को डर था कि उजबेकों की वजह से सफावियों का अस्तित्व खतरे में न पड़ जाए । इसलिए इस्माइल शाह ने उजबेकों पर हमला कर दिया। इस युद्ध में मर्व के निकट उज्बेक बुरी तरह हार गए और शैबानी खान लाशों के ढेर पर मृत पाया गया।
इस्माइल शाह ने बाबर की बहन खानजादा बेगम जिसे शैबानी खान ने छोड़ दिया था और वह दूसरे दूसरे पति के साथ में ईरानियों के हाथों पड़ गई थी। इस्माइल शाह ने उसे बाइज्जत Babur के पास भिजवा दिया।
Babur उजबेकों की की हार से बहुत खुश हुआ और उसने समरकंद पर अपना भाग्य आजमाया। आमूदरिया (आक्सस) पहुंचकर एक तेज लड़ाई में उसने उजबेकों को हरा दिया। लेकिन उसे अपनी शक्ति का एहसास हुआ। उसने सोचा कि वह अभी इतना शक्तिशाली नहीं हुआ है कि उजबेकों को हरा सके। इसलिए उसने इस्माइल शाह से सहायता लेने का मन बनाया, क्योकि वह पहले ही उसकी बहन को उसके पास भिजवाकर उसके ऊपर अहसान कर चुका था।
Babur ने शाह के पास अपना दूत भेजा। इस्माइल शाह भी उजबेकों को ट्रासआक्सियाना से बाहर निकालना चाहता था। इसलिए उसने उसकी मदद करने में संकोच नहीं किया. यद्यपि वह आमू दरिया को उजबेकों तथा सफावियों के बीच सीमा तय करने का समझौता हो चुका था। शाह ने यह समझौता इसलिए किया ताकि तैमूरियों की तरफ से किसी खतरे की आशंका समाप्त हो जाए।
समझौते की शर्तें (Terms of Agreement)
दोनों के मध्य हुए समझौते में निम्न शर्तें रखी गई –
- खुतबा मे शाह का नाम शामिल करें।
- शाह के नाम से सिक्के ढलवाए।
- अपने प्रदेशों में शिया सिद्धांतों को लागू करें। लेकिन यह बातें सिर्फ उन्हीं राज्यों पर लागू होगी जिन्हें ईरानी सहायता से जीता गया है।
बाबर ने इन शर्तों को मान लिया तथा ईरानी सेना की सहायता से बुखारा और समरकंद को जीत लिया। अपनी स्वतंत्र स्थिति कायम करने के लिए उसने इनाम देकर ईरानी सेना को वापस भेज दिय। वह ईरानी लिबास तथा ताज पहनता था, ताकि वह शाह के साथ दोस्ती निभा सके। शिया सिध्दांतों और पहनावे के कारण स्थानीय जनता उससे रूष्ट हो गयी।
समरकंद में बाबर की पुन: हार (Babur’s defeat again in Samarkand)
1514 ई. में ईरान के जॉन इसाक जो समरकंद मे इस्माइल शाह का एक प्रतिनिधि था, ने शाह को एक गुप्त सूचना भेजी कि Babur समझौते की शर्तों को नही मान रहा है और वह बगावत करना चाहता है। शाह ने उसको सबक सिखाने के लिए नज्म-ए-सानी के नेतृव्य में सेना भेज दी। ईरानी सेना के समरकंद पहुंचने से पहले ही उजबेकों ने फिर से संगठित होकर बुखारा पर कब्जा कर लिया और बुखारा के पास ही उसको बुरी तरह हरा दिया।
समरकंद की जनता भी उससे नाराज हो गई थी। इसलिए वह समरकंद को छोड़कर वापस आमूदरिया के निकट हिसार लौट आया। उस्साह से भरी हुई उजबेकों की सेना ने ईरानी सेना को हरा दिया। वस्तुत: यह सेना बाबर को हराने के लिए भेजी गई थी, लेकिन मौके को देखकर इस सेना ने Babur का साथ दिया। न तो वह और न ही शाह उजबेकों की बढ़ती हुई शक्ति को पहचान पाए। अब Babur के पास भारत की तरफ बढ़ने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं था।
बाबर का भारत की ओर बढ़ना (Babur’s advance towards India)
समरकंद मे तीसरी बार हारने के बाद अब बाबर का पूरा ध्यान हिन्दूस्तान की तरफ हो गया। बाबर ने 1519 ई. से 1926 ई. तक भारत पर 5 आक्रमण किए। 1519 ई. में बाबर ने बैजोर के किले को जीत लिया और भीरा पर भी कब्जा कर लिया जो लवण पर्वतमाला (कोह-ए-जूद) से कुछ दूरी पर झेलम नदी के किनारे पर थी। यह पर्वतमाला पारंपरिक रूप से भारत के लिए रक्षा प्राचीन थी।
बाबर उन क्षेत्रों को वापस लेना चाहता था जिन पर तैमूर का कब्जा था। इसके लिए बाबर ने एक राजदूत इब्राहिम लोदी के पास भेजा। लेकिन दौलत खान लोदी ने उसके दूत को दिल्ली नहीं जाने दिया। उसे लाहौर में ही रोके रखा। बैजोर और भीरा का क्षेत्र दौलत खान लोदी के अधीन था। जैसे ही बाबर काबुल लौट गया, दौलत खान ने बाबर द्वारा नियुक्त किए गए अधिकारियों को राज्य से भगा दिया। दौलत खान लोदी के पिता ने बहलोल लोदी का समर्थन किया था, इसलिए इब्राहिम लोदी उससे नाराज था।
1519-20 ई. में बाबर ने भीरा पर फिर कब्जा कर लिया और सियालकोट की ओर बढ़ गया। सियालकोट को भारत का प्रवेश द्वार कहा जाता है। वह सियालकोट पर कब्जा करता, इससे पहले ही उसे खबर मिली कि कंधार के शासक ने उसके प्रदेश पर हमला कर दिया है। बाबर को वापस काबुल लौटना पड़ा।
बाबर को भारत आने का आमंत्रण (Babur invitation to visit India)
1521-22 ई. में दौलत खान लोदी का पुत्र दिलावर खान बाबर के पास पहुंचा और उसे दिल्ली पर हमला करने का न्योता दिया। बहलोल लोदी का पुत्र आलम लोदी भी बाबर के पास पहुंचा और उसने भी बाबर को इब्राहिम लोदी पर हमला करने के लिए आमंत्रित किया। इसी समय राणा सांगा का दूत भी उससे मिला और राणा सांगा का प्रस्ताव उसके सामने प्रस्तुत किया। राणा सांगा का प्रस्ताव था कि जब वह दिल्ली पर आक्रमण करेगा तो राणा सांगा आगरा पर हमला कर देगा। बाबर अब समझ गया कि दिल्ली की परिस्थिति उसके अनुकूल हो गई है। ये सब सोचते थे कि तैमूर की तरह बाबर भारत आएगा। इब्राहिम लोदी को हरायेगा और मार देगा। लूटपाट करके वापस चला जाएगा। उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि बाबर यहीं पर रह जाएगा।
बाबर का भारत अभियान (Babur’s India campaign)
लाहौर विजय (Lahore Victory)
इब्राहिम लोदी को खबर मिली कि कुछ अफगान सरदार उनके खिलाफ साजिश रच रहे है, तो उसने उन्हें सबक सिखाने के लिए सेना भेजी। सेना ने दौलत खान और उसके बेटों को लाहौर से भगा दिया। इब्राहिम लोदी लाहौर में अपनी स्थिति मजबूत करता इससे पहले ही बाबर आ धमका। शहर से बाहर इब्राहिम लोदी की सेना से बाबर का सामना हुआ, लेकिन अंत में इब्राहिम लोदी की सेना बाबर से हार गई। लाहौर पर बाबर का कब्जा हो गया।
बाबर दीपालपुर पहुंचा और दौलत खान तथा आलम खान से मुलाकात की। दौलत खान ने पंजाब पर अपना दावा पेश किया। पंजाब पर उसके इस दावे को बाबर ने नकार दिया और काबुल वापस चला गया। इधर इब्राहिम लोदी की सेना ने आलम खान लोदी को दीपालपुर से भगा दिया। सियालकोट, लाहौर तथा कलानौर में बाबर ने अपने अधिकारियों को नियुक्त कर दिया।
आलम खान ने बाबर के साथ एक संधि की। इसके अनुसार आलम खान दिल्ली की गद्दी पर बैठेगा और बाबर लाहौर तथा पश्चिमी क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व रखेगा। बाबर ने एक सैन्य बल उसके साथ भेज दिया। उसने उसे आश्वासन दिया कि लाहौर मे उसके बेग उसका साथ देंगे। लेकिन जैसे ही वह लाहौर पहँचा , वहाँ के बेगों ने उसको समर्थन देने से मना कर दिया। आलम खान ने दौलत खान से मुलाकात की। दौलत खान ने बाबर की संधि को मानने से इनकार कर दिया। दोनों ने 30-40 हजार लोगों की एक सेना तैयार की और दिल्ली पर हमला कर दिया। इब्राहिम लोदी ने इनकी सेना को हरा कर तितर-बितर कर दिया। अब बाबर के पास युद्ध करने के सिवाय और कुछ नहीं बचा।
बाबर ने इब्राहिम लोदी के साथ युद्ध की तैयारी शुरू कर दी । उसने उजबेकों से बल्ख को छीन लिया और नवंबर 1925 में हिंदुस्तान विजय के लिए काबुल से कूच किया। हुमायूं को बदख्शा से आकर बाबर के साथ होना था, लेकिन उसकी ढिलाई के कारण उनके इस अभियान मे कुछ देरी हो गई। इसी कारण बाबर दिसंबर में सिंधु नदी को पार नहीं कर पाया।
बाबर की सेना में बड़े और छोटे, अच्छे और बुरे, चाकर और गैर-चाकर सब को मिलाकर 12000 लोगों की फौज थी। बाबर आगे बढ़ा और लाहौर पहुंच गया। लाहौर को दौलत खान और उसके पुत्र गाजी खान ने घेर रखा था। दोनों ने 30000- 40000 लोगों की एक सेना तैयार कर रखी थी। दौलत खान ने अपनी कमर पर दो तलवारे लटका रखी थी। एक बाबर से लड़ने के लिए तथा दूसरी इब्राहिम लोदी से लड़ने के लिए। लेकिन जैसे ही बाबर की सेना आई, दौलत खान की सेना भाग गई। गाजी खान भागकर पहाड़ियों में छिप गया। दौलत खान ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसे पकड़ कर भीरा भेज दिया। लेकिन भीरा पहुँचने से पहले ही उसकी मौत हो गई।
पंजाब विजय (Punjab Victory)
इब्राहिम लोदी की चाल को जानने के लिए बाबर ने टोही दल सभी दिशाओं में भेज दिए। बाबर ने पंजाब को 3 दिनों में जीत लिया और दिल्ली की ओर बढ़ा। रास्ते में हुमायूं की फिरोजा के शिकदार हामिद खान के बीच एक छोटी सी झड़प हुई। हुमायूं ने उसे परास्त कर दिया। उससे 100 कैदी तथा 5-7 हाथी ले आया। उधर इब्राहिम लोदी भी अपनी सेना को लेकर कछुए की चाल से आगे बढ़ रहा था और बीच-बीच में शिविर लगाकर दो-तीन दिनों के लिए रुकता था।
पानीपत का प्रथम युध्द (First Battle of Panipat)
पानीपत के मैदान में दोनों की सेनाएं आमने-सामने आ गई। बाबर की सेना में 12000 तथा कुछ संख्या में अफगानी और हिंदुस्तानी शामिल थे। जबकि इब्राहिम लोदी की सेना में 100000 लोग और 1000 हाथी थे। इब्राहिम लोदी की विशाल सेना को देखते हुए बाबर ने अपनी व्यूह रचना बनाई। उसने बांय ओर पानीपत शहर को रख दिया तथा दाएं और गहरी खाई खुदवा कर उसको काटे गए पेड़ों की डालो से ढकवा दिया। ताकि शत्रु की घुड़सवार सेना उसे पार नहीं कर सके। सामने में 700 गाड़ियों को खड़ा कर दिया। इनमें से कुछ को तो वें माल ढोने के लिए अपने साथ लेकर आए थे तथा कुछ गाड़ियों को स्थानीय लोगों से ले लिया। सभी गाड़ियों को कच्चे चमड़े से बांध दिया। गाड़ियों के बीच की जगह में चबूतरे बना दिए गए ताकि उनकी आड़ में उनके बंदूकची तोपों से आग बरसा सके। गाड़ियों के बीच में खाली जगह भी छोड़ दी गई ताकि घुड़सवार इनसे होकर जा सके। इस पद्धति को इस्माइली या रूसी युक्ति कहते हैं। इस विधि का प्रयोग 1514 ई. में रूसी सुल्तान ने शाह इस्माइल के खिलाफ चांदीराम की लड़ाई में किया था।
एक हफ्ते तक दोनों की सेनाएं एक दूसरे के आगे डटी रही। इब्राहिम लोदी ने बाबर की व्यूह रचना को समझने की कोशिश नही की। जब इब्राहिम लोदी लड़ने के लिए बाहर आया तो वह बाबर की अग्रिम पंक्ति की सुरक्षा व्यवस्था को देखकर दंग रह गया। वह अपनी सेना को पुनर्विन्यस्त कर रहा था, तभी बाबार ने मौके का फायदा उठाया और उस पर हमला कर दिया। बाबर ने अपनी बाजू की सेना को उज्बेकों की तुलगुमा युध्द पध्दति के अनुसार चक्कर काटते हुए लोदी की सेना पर बाजू से तथा पीछे से हमला करने के लिए भेज दिया। सामने से घुड़सवारों ने बाणों की बौछार कर दी और उनके बंदूकची एक दूसरे से सट कर इकट्ठे खड़े अफगान सैनिकों पर आग उगलने लगे। बाबर की सेना मे उस्ताद अली और मुस्तफा नामक दो रूसी उस्ताद सेवा दे रहे थे। उस्ताद अली को मुख्य तोपची बनाया गया था। बहुत जल्दी ही इब्राहिम लोदी परास्त हो गया और मार दिया गया। इस युद्ध में 15000 सैनिक मारे गए थे। बाबर का दिल्ली पर कब्जा हो गया और जौनपुर तक के पूरे प्रदेश पर उसका कब्जा हो गया।
खानवा का युद्ध (16 मार्च 1527 ई. ) (Battle of Khanwa)
राणा सांगा ने बाबर का बाबर को आमंत्रित किया था लेकिन उसका साथ नहीं दिया। उसने सोचा होगा कि बाबर दिल्ली आएगा, इब्राहिम लोदी को हराया, उसको मार डालेगा और लूटपाट करके यहां से चला जाएगा। लेकिन बाबार ने इब्राहिम लोदी को हरा दिया, उसको मार दिया, लेकिन यही पर रह गया और अपना साम्राज्य बनाने की बात सोचने लगा।
राणा सांगा को बाबर से खतरा महसूस होने लगा। राणा सांगा ने अपने पास के सभी राजाओं को संगठित कर लिया। राणा सांगा ने सपने में भी कभी नहीं सोचा था कि बाबार यहां पर रह जाएगा। उधर बाबर ने राणा सांगा पर समझौते को तोड़ने का आरोप लगाया क्योंकि राणा सांगा ने समझौता किया था कि यदि बाबर दिल्ली पर आक्रमण करेगा तो वह आगरा पर हमला करेगा।
बाबर को पता चला कि वह आगरा की ओर निकल रहा है। उसकी सेना राणा सांगा की बहादुरी की कहानी सुनकर पहले ही डरी हुई थी। सेना में असंतोष भरा हुआ था। राणा सांगा के शरीर पर 89 चोट के निशान थे तथा वह 49 लड़ाईया लड़ चुका था। तभी बाबर ने अपनी सेना की मीटिंग बलाई तथा ओजस्वीपूर्ण भाषण दिया। उसने कहा यदि हम काबुल की ओर वापस जायेंगे, राणा सांगा काबुल तक हमारा पीछा करेगा और हमको छोडेगा नही । यदि हम काफिरों से लड़ते हुए मारे गए तो जन्नत मिलेगी ओर यदि भाग गए तो कायर कहलायेंगे। इस युध्द को बाबर ने जेहाद का युध्द घोषित कर दिया।
बेग और फौजियों को कुरान की कसम खिलवाई गयी ताकि वे पीछे नहीं हटें। अपने को सच्चा मुसलमान बताने के लिए बाबर ने चुनिंदा गजनबी शराब की सुराहियों को तोड़ दिया और गरीबों में बांट दिया। अफीम खाना शुरू कर दिया और हुमायूं को भी सिखा दिया। मुस्लिम व्यापारियों पर लगने वाली तमगा चुंगी समाप्त कर दी गई ।
बाबर ने हुमायूं को पूरब के अफगान अभियान से वापस बुला लिया और धौलपुर, ग्वालियर तथा बयाना को जीतने के लिए सैन्य टुकड़िया भेज दी। यें तीनों शहर किले बंद किए गए थे और इनके सेनानायक मुस्लिम थे। राणा सांगा की बढ़त के बारे में सुनकर धौलपुर तथा ग्वालियर के सेनानायको ने बाबर की उदारतापूर्ण शर्तो को मान लिया और किले उसे सौंप दिए। बयाना के सेनानायक निजाम खान ने दोनों पक्षों से बात आरंभ कर दी।
16 मार्च 1527 ई. को खानवा की लड़ाई हुई । इसमे भी तुलगुमा युद्ध पद्धति (tulguma warfare method)का प्रयोग किया और प्रथम पानीपत युद्ध जैसा व्यू बना दिया गया। राणा सांगा की सेना को चारों ओर से घेर लिया। राणा सांगा हाथी पर बैठकर अपनी सेना का नेतृत्व कर रहा था। तभी एक तीर उसकी आंख में लगा और वह नीचे गिर गया। उसके सैनिकों ने बड़ी चालाकी से उसको छुपा कर के वहां से भगा दिया। वह चित्तौड़ में जाकर छिप गया। बाबर ने सभी राजपूत सेना के सिर कलम करवा दिये तथा सभी सिरों को एकत्र करवा कर बुर्ज बनवा दिया। इस युध्दके बाद बाबर ने गाजी की उपाधि धारण की। गाजी शब्द का अर्थ होता है काफिर लोगों का सिर कलम करने वाला।
राणा सांगा का बहनोई बाबर के साथ मिल गया और उसने बाबर को राणा सांगा के छिपनेकी जगह बता दी। बाबर ने राणा सांगा को 30 जनवरी 1528 ई. को मरवा दिया और उसके बाद उसके बहनोई को मरवा दिया।
इस युद्ध में सभी राजपूत राजाओं ने राणा सांगा का साथ दिया। अफगान नेता महमूद लोदी भी राणा सांगा का साथ दिया। मालवा के राजा मेदिनी राय ने भी राणा सांगा का साथ दिया। मेवात के राजा हसन खान ने भी राणा सांगा का साथ दिया।
चंदेरी का युद्ध (Battle of Chanderi)
मालवा के मेदिनी राय ने खानवा के युद्ध में राणा सांगा का साथ दिया था और अब भी वह बाबर से लड़ने के लिए अपने आप को संगठित कर रहा था। दिसंबर 1527 ई. में बाबर ऐसे रास्ते से चंदेरी पहुंच गया,जिसका इस्तेमाल कोई नहीं करता था। बाबर ने उसके सामने प्रस्ताव रखा कि वह मालवा छोड़ दें और इसके बदले में शमशाबाद ले ले। मेदिनी राय ने बाबर के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और दोनों के मध्य युद्ध हुआ। मेदिनी राय बड़ी बहादुरी से बाबर की सेना के साथ लड़ा, लेकिन जब उसको लगा कि उसकी सेना हार रही है तो उसने जौहर कर लिया। इस युद्ध में मेदिनी राव की दो बेटियां बाबर के हाथ पड़ गई जिन्हें उसने हुमायूं और कामरान के हवाले कर दिया। इस युद्ध को भी बाबर ने जेहाद का युद्ध घोषित किया।
घाघरा का युद्ध (Battle of Ghaghara)
1529 ई. में इस युद्ध में बाबर ने महमूद लोदी को हराया। सरयू नदी का नाम बिहार में जाकर घाघरा हो जाता है। यह एक ऐसा युद्ध है जो घाघरा नदी के जल में भी लड़ा गया और थल में भी लड़ा गया।
बाबर की मृत्यु (Death of Babur)
चंद दिनों की बीमारी के बाद 30 दिसंबर 1530 ई. को आगरा में बाबर की मौत हो गई। बाबरनामा के अनुसार 1528-29 ई. में वह 6 बार बीमार हुआ और हर बार वह कम से कम दो हप्ते तक बीमार रहा। लगातार लड़ाई लड़ते रहने से और भारत की गर्म जलवायु जिसका वह आदी नहीं था, के कारण उसका स्वास्थ्य खराब होता चला गया।
उसकी मृत्यु के बारे में अनेक अनेक कहानी गढ़ दी गई है। एक कथा के अनुसार उसका बेटा हुमायूं बहुत बीमार था। बाबर ने अल्लाह से इबादत की कि अल्लाह शहजादे की जान बख्श दे और उसकी ले ले। तभी से बाबर बीमार हो गया और हुमायूं ठीक हो गया।
दूसरी कथा के अनुसार इब्राहिम लोदी की माँ बाबर की रॉयल किचन में नौकरी करने लगी। उसके काम से प्रसन्न होकर उसे किचन का प्रमुख बना दिया। उसने बड़ी चालाकी से बाबर के खाने में जहर मिला दिया और बाबर का देहान्त हो गया।
तीसरी कथा के अनुसार बाबर दिल्ली से काबुल जा रहा था। लाहौर में रेस्ट करने के लिए रुका। रेस्ट करके उठते समय उसकी मौत हो गई।
बाबर का मकबरा (Babur’s Tomb)
बाबर की इच्छा थी कि उसका मकबरा काबुल में बने। उसे पहले आगरा में दफनाया गया और बाद में लाहौर ले जाया गया। वहीं पर हुमायूं ने उसका मकबरा बनवाया।
बाबर की आत्मकथा (Autobiography of Babur)
बाबर ने अपनी आत्मकथा तुज्क-ए-बाबरी अथवा बाबरनामा के नाम से लिखी। बाबर ऐसा पहला शासक था जिसने पहली आत्मकथा लिखी। यह तुर्की में लिखी गई है। इसका फारसी में अनुवाद अब्दुल रहीम खानखाना ने किया।
बाबरी मस्जिद (Babri Masjid)
1528 में बाबर के सेनापति मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया जिसे 6 दिसंबर 1992 ई. में एलके आडवाणी द्वारा नष्ट करवा दिया गया था।
बाबर के पुत्र और पुत्रियां (Babar’s sons and daughters)
- हुमायूं
- कामरान मिर्जा
- अस्करी मिर्जा
- हिंदल
- गुलबदन बेगम
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