राजा पुरन्जीत | Raja Puranjit
बहुत समय पहले की बात है। काशी में पुरन्जीत नाम के एक राजा रहते थे। वे बहुत वीर, यशस्वी और प्रजा के शुभ चिन्तक थे। उनके राज्य में जनता सुखी और समृध्द थी। राजा बहुत दानी था। वह संघारामों में जाकर भिक्खुओं को दान दिया करता था। धम्म के नियमों के अनुसार ही वह अपने रीति-रिवाजों को निभाया करता था। उसके राज्य के समस्त लोग भयमुक्त और खुशहाली के माहौल में अपना जीवन व्यतीत करते थे।
राजा अपनी प्रजा का इतना ध्यान रखता था कि उसके राज्य में एक भी गरीब व्यक्ति दिखायी नही देता था। जहाँ राजा एक ओर जनता की सुख-सुविधा और विकास के लिए प्रयासरत रहता था वहीं जनता भी उन्हें पिता की तरह प्यार करती थी। राजा पुरन्जीत की ख्याति केवल अपने राज्य में ही नही बल्कि दूर-दूर के राज्य में फैली हुई थी। दुसरे राज्यों के राजा उनकी बहादुरी से इतने वाकिफ थें कि काशी की तरफ कोई भी बूरी नजरों से नही देखते थें।
किसी भी राजा में उनके विरूध्द युध्द छेड़ने या हमला करने का साहस नही था। राजा तथा जनता के बीच के सम्बन्धों की चर्चा भी दूर-दूर तक होती थी। अपनी प्रजा की खुशहाली तथा उन्नति देखकर राजा पुरन्जीत को भी हार्दिक प्रसन्नता होती थी। जनता का अपने प्रति प्यार और समर्पण की भावना देखकर उसका मन प्रसन्नता से भर उठता था। जनता तथा भिक्खुसंघ हमेशा राजा की प्रशंसा करते थे। राजा जनता को हमेशा बुध्द के बताये हुए रास्ते पर चलने के लिए कहता था। जनता भी अपनी समयस्याओं के समाधान हेतु संघारामों में जाती थी। भिक्खुजन भी जनता के बीच उपदेश देने आते थे।
इतना कुछ होने के बाद भी कभी-कभी राजा पुरन्जीत चिन्तित हो जाते थो। वे सोचते थे कि आखिरकार मैं एक मनुष्य हूँ और कोई भी व्यक्ति शत प्रतिशत अच्छा नही होता। हर एक व्यक्ति में कोई न कोई दोष होता है। मेरे अन्दर भी कुछ न कुछ दोष होगा। लेकिन मेरे सभी दरबारी, अधिकारी, पुरोहित, समन और प्रजा मुझे निर्दोष कहती है। प्राचीनकाल में भिक्खुओं को समन कहा जाता था। बमण बुध्द के अनुयायी होते थे। वे विद्वान व्यक्ति होते थे जो गृहस्थ जीवन में रहते हुए उपासक का जीवन व्यतीत करते थें।
बमण लोग ही राजा के दरबार में पुरोहित हुआ करते थें। राजा इसी बात को लेकर चिन्ता में डूबे हुए थे। वे सोच रहे थे कि जब सामन्य जनता में प्रत्येक के अन्दर कुछ न कुछ अवगुण होता है तो मेरे अन्दर भी कम से कम एक तो अवगुण होगा। इसी सम्बन्ध में विचार-विमर्श करने के लिए राजा ने अपने दरबारियों तथा अधिकारियों की एक बैठक बुलायी।
सबसे पहले राजा पुरन्जीत ने अपने प्रधानमंत्री से इस सम्बन्ध में राय माँगी। प्रधानमंत्री ने कहा कि हे राजन, आपका राज्य समृध्द है। जनता धन-धान्य से परिपूर्ण है। प्रजा आपको पिता के समान सम्मान करती है तथा आपकी प्रशंसा करती है। निश्चय ही आप सर्वगुणसम्पन्न, प्रजा-स्नेही, संयमी और सर्वशक्तिशाली है। आप सचमुच महान और निर्दोष हो।
इसके बाद राजा ने अपने राज-पुरोहित से राय माँगी। महाराज आप तो अपनी दृष्टि छाया सबके ऊपर एकसमान रूप से डालते हो। आप तो बुध्द के सच्चे अनुयायी हो और अपनी प्रजा को भी बुध्द द्वारा बताये गये रास्ते पर चलने की सलाह देते हो। आप मुझसे तथा बमणों से बुध्द की शिक्षाओं की जानकारी हासिल करते हो। जैसे स्वस्थ जल में गन्दगी का एक भी कण दिखायी नही देता, वैसे ही आपमे एक भी अवगुण दिखायी नही देता।
इसके बाद राजा ने अपने सेनापति से राय माँगी। सेनापति ने कहा आप बहुत वीर और पराक्रमी राजा हो। आप एक कुशल प्रशासक हो। आपके रहते हुए कोई भी राजा अपनी कुदृष्टि हमारे राज्य के ऊपर डालने की हिम्मत नही करते। हमारी राज्य-सीमा और प्रजा दोनों ही आपकी वजह से सुरक्षित है। हमारे राज्य के सभी व्यक्ति भयमुक्त वातावरण में अपना जीवन निर्वाह करते है। निश्चय ही आप एक महामानव, महानतम राजाओं में एक तथा निर्दोष राजा हो।
इसके बाद राजा ने अन्य दरबारियों से अपने बारे में जानने की इच्छा प्रकट की। सभी सभासद एक ही स्वर में बोले कि महाराज आप महान और निर्दोष हो। आप पराक्रमी और प्रजा-स्नेही हो। एक भी अवगुण आपके अन्दर दिखायी नही देता। आपके राज्य में जनता गरीबी को भुल गयी है। यह सुनकर राजा बहुत खुश हुए।
इतना सब कुछ सुनने के बाद भी राजा को संतुष्टि नही मिली। अपने आप को संतुष्ट करने के लिए राजा पुरन्दर ने अपने तथा अन्य राज्यों के सुदूर क्षेत्रों में जाकर जनता से अपने सम्बन्ध में राय जानने का निर्णय लिया। राजा अपने राज्य के सभी क्षेत्रों में गया लेकिन उन्हे कहीं से भी अपने विरूद एक भी शब्द सुनने को नही मिला।
इसके बाद राजा दुसरे राज्यों के गाँव-गाँव तथा नगर-नगर घुमा तथा लोगों से सम्पर्क स्थापित किया। सभी लोगों ने राजा की प्रशंसा की तथा उनके गुणों का बखान किया। उन्होंने राजा को प्रजा-स्नेही, दानी, पराक्रमी तथा सर्वगुण सम्पन्न बताया। राजा को अब विश्वास हो गया था कि वह सर्वगुण सम्पन्न तथा सर्वशक्तिशाली है। राजा के ह्रदय में एक खुशी की लहर दौड़ रही थी। राजा ने अपने राज्य की ओर प्रस्थान किया।
राजा का रथ अपने महल की ओर बढ़ता जा रहा था। रास्ते में एक संकुचित पुलिया आ गयी। जैसी ही राजा पुरन्जीत का रथ पुलिया के अन्दर घुसा, वैसे ही दुसरी दिशा से एक दुसरे राजा का रथ अन्दर घुस गय़ा। राजा पुरन्जीत का सारथी उस दुसरे रथ के सारथी के ऊपर चिल्लाया, “ अरे भाई, अपना रथ पीछे हटाओं. यह रथ काशी नरेश पुरन्जीत का है”। दुसरे रथ का सारथी भी चुप रहने वाला नही था। उसने तुरन्त कहा, “यह रथ कोशल नरेश शिवानंद का है, इसलिये आपको ही अपना रथ पीछे हटाना पड़ेगा”।
काफी वाद-विवाद के बाद यह तय हुआ कि जिस राजा की आयु अधिक होगी, उसके रथ को आगे बढने दिया जायेगा। पता चलने पर दोनों राजाओं की आयु बराबर निकली। फिर तय हुआ कि जिस राजा का राज्य बड़ा होगा, उसके रथ को आगे बढ़ने दिया जायेगा। चुँकि दोनो राजाओं का राज्य भी बड़ा निकला, अत: दोनों सारथी फिर उलझन में पड़ गये।
समस्या का समाधान करने के लिए राजा शिवानंद ने एक तरीका निकाला। उसने कहा कि जो राजा अधिक विद्वान होगा, उसका रथ आगे बढ़ेगा। इसलिए राजा शिवानंद ने राजा पुरन्जीत को कहा कि बताइए राजन आपमे क्या-क्या गुण है? राजा पुरन्जीत ने उत्तर दिया कि मै अच्छे लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करता हूँ और बुरे लोगों के साथ के साथ बुरा।
राजा शिवानंद ने कहा कि मै तो इसे अच्छा गुण नही समझता हूँ। मै अच्छे लोगों के साथ तो अच्छा व्यवहार करता ही हूँ बल्कि बुरे लोगों के साथ भी अच्छा व्यवहार करता हूँ। राजा पुरन्जीत बहुत शर्मिन्दा हुए। उन्हे अपना गलता का अहसास हुआ। उन्होंने अपने सारथी को अपना रथ पीछे हटाने का आदेश दिया। राजा शिवानंद का रथ आगे बढ़ा। दोनों राजाओं ने एक-दूसरे का अभिवादन किया और अपने-अपने राज्य पर आगे बढ़ गये।
इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि किसी भी व्यक्ति में शत प्रतिशत गुण नही होते। इसलिए कभी भी अपने ज्ञान का घमंड नही करना चाहिए।
यह केवल एक कहानी है। इतिहास से इसका कोई सम्बन्ध नही है।
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